सोमवार, 22 नवंबर 2021

अंगूठे से जाने स्वभाव, हस्त रेखा ज्ञान

पामिस्ट्री के गूढ़ रहस्य 

 अँगूठा


मनुष्य के स्वभाव तथा चरित्र का अध्ययन करने में अंगूठे तथा अंगुलियों का विशेष महत्व है। इस प्रकरण में इस विषय पर विस्तार से लिखा जा रहा है।


अंगूठा


यद्यपि अंगुठे की गणना हाथ की 5 अंगुलियों के अन्तर्गत ही की जाती है, तथापि अगूठा उनमें अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। जातक में मानसिक शक्ति की न्यूनाधिकता का मुख्य आभास अंगूठे से ही प्राप्त होता है।


शरीर-विज्ञानियों के मतानुसार अंगूठे का सम्बन्ध एक विशेष नाड़ी द्वारा मस्तिष्क से होता है तथा मस्तिष्क में (Thumb brain) नामक एक ऐसा स्थान भी होता है, जिसके द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को संचालन संबंधी निर्देश दिये जाते हैं।


अंगूठे के मुख्य दो भेद माने गये हैं।

(1) सीधा और सुदृढ़


(2) कोमल तथा झुका हुआ।




सीधे तथा सुदृढ अँगूठे वाले व्यक्ति अधिक हठी तथा जिद्दी स्वेच्छाचारी होते हैं अगर एक बात पर अड़ गए तो अड़ गए फिर कोई नही मना सकता है। अपने मन की बात मानने वाले होते है।

 जबकि

कोमल तथा झुके हुए अँगूठे वाले एक बात पर अडिग नहीं रह पाते है, सभी बात को फॉलो करने वाले, स्वभाव के पाये जाते हैं।


विभाग- अंगूठे के 3 विभाग होते है-(1) ऊर्ध्व, (2) मध्य तथा (3) निम्न।

उध्वं भाग में जातक की इच्छा शक्ति, मध्य भाग से विचार शक्ति तथा निम्न भाग से प्रेम-शक्ति के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।अंगूठे का ऊर्ध्व भाग इच्छा शक्ति का केन्द्र होता है-यह बात कही जा चुकी है। यह भाग यदि नोकदार अथवा वर्गाकार हो तो शुभ नहीं माना जाता। यह भाग यदि मध्यभाग की अपेक्षा अधिक बड़ा हो तो जातक स्वेच्छाचारी, हठी, निर्दय, झगड़ालू तथा कुतर्की होता है, यदि छोटा हो तो विचार शक्ति निर्बल होती है तथा उसे अपनी सामर्थ्य पर भी भरोसा नहीं रहता। ऊर्ध्व भाग जितना अधिक मोटा या संकुचित होगा, जातक के स्वभाव में उतनी ही अधिक अस्थिरता एवं चंचलता पाई जाएगी। ऊर्ध्व भाग को मध्ये भाग के बराबर तथा सुन्दर होना शुभ रहता है।


अंगूठे का मध्य भाग उर्ध्व भाग के बराबर हो तो जातक की इच्छा शक्ति एवं विचार शक्ति में सन्तुलन बना रहता है, जिसके फल स्वरूप उसे प्रेम तथा जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त होती है।


मध्य भाग


यदि मध्य भाग अधिक बड़ा हो तो विचार शक्ति की

अधिकता के कारण जातक की इच्छा शक्ति में रुकावट आती है, फलतः वह या तो किसी निश्चय पर पहुंच ही नहीं पाता और यदि पहुंच भी जाय तो उसे क्रियान्वित करने में इतना अधिक विलम्ब कर देता है कि उसका महत्व ही समाप्त हो जाता है।



अंगूठा 


• अंगूठे का निम्न भाग पूर्वोक्त दोनों भागों की अपेक्षा बहुत छोटा होता है और वह शुक्र क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह भाग यदि सामान्य आकार का हो तो जातक उत्कृष्ट प्रेमी होता है तथा किसी प्रकार की जड़ता एवं स्वार्थ का प्रदर्शन नहीं करता। यदि बहुत बड़ा हो तो जातक बड़े लोगों के कहने पर अपने प्रेम सम्बन्धी विचारों में परिवर्तन कर लेता है, परन्तु सामान्यजनों के विरोध की कोई चिन्ता नहीं करता। निम्न भाग बहुत छोटा अथवा सर्वथा लुप्त हो तो जातक स्वार्थी, हृदय-हीन तथा प्रेम शून्य होता है। ऐसे लोग प्रायः गंभीर रहा करते हैं।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

वास्तु शास्त्र में वास्तु पुरुष का महत्व

वास्तु शास्त्र में वास्तु पुरुष का महत्त्व



१) वास्तु पुरुष की जन्म कथा:

वास्तु शास्त्र के सभी नियम एक काल्पनिक वास्तु पुरुष की परिकल्पना के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। वास्तुशास्त्र में वास्तु पुरुष को एक वास्तविक पुरुष के रूप में परिभाषित किया गया है। जिस प्रकार किसी भी मनुष्य के शरीर के संवेदनशील अंग या मर्म स्थान होते हैं ठीक उसी प्रकार वास्तु पुरुष के सभी संवेदनशील अंग एवं मर्मस्थान होते हैं।

वास्तु शास्त्र में वास्तु पुरुष का बार-बार उल्लेख किया जाता है। इस लेख में हम वास्तु पुरुष का जन्म व भवन से उसके संबंध के विषय में विस्तार से जानेंगे। यदि हमें वास्तु पुरुष के महत्व को समझना है तो उसकी जन्म कथा के विषय में जानना अत्यंत आवश्यक है। वास्तु
पुरुष की उत्पत्ति के विषय में लगभग एक दूसरे से मिलती जुलती कई कथाएँ है। परन्तु यहाँ हम ऐसी दो कथाओं का वर्णन करने जा रहे हैं
जो कि ज्यादा प्रचलित हैं। ये दो कथाएँ वास्तु पुरुष की उत्पत्ति के विषय में विस्तार से जानकारी देती हैं।

 त्रेता युग में एक विशालकाय व अति बलशाली महाभूत का जन्म हुआ। जिसने अपने विशालकाय व भारी भरकम शरीर से संपूर्ण पृथ्वी को ढॉप लिया। इसके कारण पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। इस संकट से बचने हेतु सभी देवतागण एवं देवराज इंद्र आदि भयभीत होकर श्री ब्रह्माजी की शरण में चले गए और पृथ्वी पर आए इस संकट के विषय में उन्हें विस्तार से बताया कि किस प्रकार उस विशालकाय राक्षस ने पूरी पृथ्वी को अपने विशालकाय शरीर से आच्छादित कर दिया है जिसके परिणाम स्वरूप पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। यदि पृथ्वी के बचाव हेतु कोई उपाय न किया गया तो समस्त सृष्टि का अंत हो सकता है। इस बात की विस्ता जानकारी श्री ब्रह्माजी को दी गई और उनसे इसके बचाव हेतु कोई उपाय या सुझाव बताने की प्रार्थना की।

श्री ब्रह्माजी को देवताओं द्वारा मिली जानकारी से पृथ्वी पर आए इस गंभीर कट का पता चला तो उन्होंने तुरन्त समस्त देवतागण को सामूहिक रूप से महाभूत देवशक्ति का प्रयोग करके उसे उठाकर मुंह के बल उल्टा पटक देने का सुझाव दिया सभी देवतागण में ब्रह्मा जी की बात मानी और ठीक उसी प्रकार उस महाभूत के साथ किया। ऐसा करने से उस महाभूत का सारा प्रभाव खत्म हो गया। वह शक्तिशाली होते हुए भी दुर्बल एवं कमजोर हो गया। प्रभावहीन और शक्तिहीन होने के कारण उसने ब्रह्माजी की प्रार्थना की और उनको अपनी सारी व्यथा सुनाई। उसने निवेदन किया कि मैं जन्म से ही विशालकाय हूँ इसमें मेरा कोई दोष नहीं है और मुझे सभी देवताओं ने भूमि पर मुंह के बल उल्टा पटक दिया है। इसके कारण मेरा बड़ा अपमान हुआ है। साथ ही सभी देवतागण मेरे ऊपर बहुत अत्याचार करते हैं। मेरा जीवन काफी कष्टपूर्ण हो गया है और साथ ही मेरा अस्तित्व तो समाप्त प्रायः हो चुका है। कृपया आप मेरा उद्धार करो इससे ब्रह्माजी दयाभाव दिखाते हुए उस पर प्रसन्न हो गए और उस महाभूत का वास्तु पुरुष के रूप से नामकरण किया फिर उन्होंने उसे वरदान स्वरूप आशीर्वाद दिया कि किसी भी भवन, शहर नगर निर्माण से पूर्व हर व्यक्ति पहले तुम्हारी पूजा करेगा व तुम्हारा मान-सम्मान करेगा तभी उसे सुखों की प्राप्ति होगी अन्यथा वह स्वयं मृत्यु, दरिद्रता, आरोग्य हानि एवं महा-दुखों से त्रस्त रहेगा। उसको जीवन भर किसी भी प्रकार का सुख नहीं मिलेगा। ब्रह्माजी का आशीर्वाद मिलने से वह प्रसन्न हो गया और उसने भी सभी के कल्याण हेतु उस ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व को अंगीकार किया। तभी से ऐसा माना जाता है कि हर भवन,शहर व नगर में वास्तु पुरुष का अदृश्य स्थिति में निवास होता है। उस वास्तु पुरुष पर जब देवताओं ने अपनी देवशक्ति के प्रयोग से उसे उठाकर अधे मुख गिराया था तब उसका सिर पूर्वोत्तर के ईशान्य कोण में, पाँव दक्षिण-पश्चिम के नैऋत्य कोण में एवं दायीं कुहनी दक्षिण पूर्व के आग्नेय कोण में तथा बाई कुहनी उत्तर पश्चिम के वायव्य कोण में स्थापित हुई थी। अधोमुखी होने के कारण उसका मुख नीचे भूमि की ओर व पीठ ऊपर आकाश की ओर हुई थी। इस प्रकार की शरीर रचना के साथ उनका हर एक भवन में निवास होता है ऐसा शास्त्रों के अनुसार माना जाता है।

वास्तु पुरुष के जन्म के विषय में दूसरी कथा जो कि हमारे प्राचीन ग्रंथ मत्स्य पुराण में मिलती है वह भी काफी प्रचलित है। 

कथा नं. २: बहुत समय पूर्व अंधक नाम के राक्षस ने अपने कुकर्मों से इस पूरी धरती को प्रताड़ित किया था। इस राक्षस के डर का साया पूरी धरती पर छाया हुआ था। इस राक्षस के विनाश हेतु भगवान शिवजी ने उससे युद्ध करने का फैसला किया। भगवान शिवजी तथा राक्षस अंधक में घनघोर युद्ध हुआ। उस युद्ध में राक्षस का अंत हो गया। परन्तु जब भगवान शिवजी राक्षस के साथ युद्ध कर रहे थे तब उनके शरीर से काफी पसीना निकल रहा था। उस पसीने की कुछ बूंदे धरती पर पड़ने से एक पुरुष ने जन्म लिया। वह पुरुष दिखने में एकदम भयंकर एवं क्रूर नजर आ रहा था। जन्म से ही वह भूख के मारे व्याकुल रहता था। वह हमेशा भूख के चलते खाने के लिए तड़पता रहता था। उसे हमेशा कुछ न कुछ खाने को चाहिए था। उसकी खाने की व्याकुलता इतनी थी कि वह कितना भी खाता था तो भी उसकी भूख नहीं मिटती थी।

इसके उपाय हेतु उसने भगवान शिवजी की कठोर साधना करने का फैसला किया। उसकी कठोर साधना से भगवान शिवजी उस पर प्रसन्न हो गए और उसे वरदान स्वरूप आशीर्वाद देने की इच्छा जताई तो उसने भगवान शिवजी से आशीर्वाद के रूप में तीनों लोक (पाताल लोक, पृथ्वी लोक एवं स्वर्ग लोक) को खाने की अनुमति माँग ली। भगवान शिवजी तो ठहरे भोले नाथ उन्हें क्या पता था कि आशीर्वाद के तौर पर वह उनसे कुछ इस प्रकार की इच्छा करेगा। परन्तु वह जो कुछ भी आशीर्वाद के रूप में मांगेगा उसे पूरा कर देने का वचन उन्होंने पहले से ही उसे दिया हुआ था। अब भगवान शिव अपने वचन से मुकर नहीं सकते थे व उसे नकार भी नहीं सकते थे। उनके पास अब तथास्तु बोलने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था।

भगवान शिवजी से मिले आशीर्वाद प्राप्ति से अंधक बहुत प्रसन्न हो गया। परिणाम स्वरूप उसने पहले भूलोक को खाना शुरू कर दिया तो सभी देवता गण भयभीत होकर ब्रह्माजी के पास चले गए। उन्होंने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि वे सभी लोगों की इस भयंकर राक्षस से रक्षा करें और इस धरती को भी बचाएं। तो ब्रह्माजी ने उन्हें सुझाव दिया की वह अपनी दिव्यशक्तियों का उपयोग करके उसे पकड़ कर उल्टा करें और देवतागण उसके शरीर पर चढ़ जाएं। देवतागण ने उनकी बात मान ली और उसके साथ इसी प्रकार का व्यवहार किया जिसके कारण वह महाकाय महाभूत बहुत व्याकुल हो उठा। इस पर उसने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वह कब तक ऐसा अधोमुखी कैदी की तरह रहेगा। मैं क्या खाऊँगा? मेरी तो भूख के मारे जान जा रही है। साथ ही मेरे ऊपर सभी देवता गण बहुत अत्याचार करते हैं तथा मुझे पीड़ा देते हैं। कृपया मुझपर आप अपनी कृपादृष्टि बनाएं व इस संकट से बचाएं। मेरा उद्धार करें प्रभो

तो ब्रह्माजी ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उसे वरदान दिया कि आज से तुम वास्तु पुरुष के नाम से जाने जाओगे और अधोमुखी स्थिति में तुम्हारा निवास हर भवन व हर भूखंड में बना रहेगा। भवन निर्माण करते समय जो तुम्हारी पूजा करेगा, तुम्हारा उचित मान-सम्मान करेगा उसे तुम्हारे आशीर्वाद स्वरूप सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी। परन्तु जो तुम्हारा तिरस्कार करेगा या तुम्हारा अपमान करेगा उसे तुम्हारे क्रोध का सामना करना पड़ेगा। तभी से ऐसा माना जाता है कि सभी भवनों में वास्तु पुरुष का निवास होता है।

सोमवार, 8 नवंबर 2021

Part 2 वास्तु शास्त्र का स्वास्थ्य से संबंध



 दक्षिण पूर्व का आग्नेय कोण 

 दक्षिण-पूर्व का आग्नेय कोण: महत्व

वास्तुशास्त्र की शब्दावली में किसी भी भूखंड की पूर्व दिशा के मध्य से लेकर दक्षिण दिशा के मध्य का भाग आग्नेय कोण कहलाता है। यह हमारे भवन का सबसे गर्म कोण होता है। प्राकृतिक रूप से ही यह कोण भवन के अन्य कोणों की तुलना में अधिक गर्म होता है। इसके इसी गुण धर्म को देखते हुए यहाँ पर बेडरुम न बनकर किचन को बनना चाहिए।


 ३) दक्षिण-पश्चिम का नैऋत्य कोण या उपदिशा:


वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी भवन की पश्चिम दिशा के मध्य से लेकर दक्षिण दिशा के मध्य का भाग नैऋत्य कोण या नैरूत कोण के नाम से जाना जाता है। इस कोण को बुजुर्ग व्यक्तियों का स्थान भी कहा जा सकता है। यह कोण सभी बुजुर्ग लोगों के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। प्रकृति के नियमों के अनुसार जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जाती है वैसे ही उन्हें अनेकों छोटी-मोटी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इसमें जोड़ों का दर्द, आर्थराइटिस, कैल्शियम की कमी, पाचन संबंधी बीमारियां, शरीर में कमजोरी, थकावट आदि हो सकते हैं। इन सब पर काबू पाने या उसके प्रभाव को कम करने हेतु भवन की दक्षिण-पश्चिम की नैऋत्य दिशा में बने कमरे में रहना चाहिए। यहाँ पर रहने से काफी हद तक ऐसी बिमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है।

इस कोण की विशेषता यह होती है कि इस स्थान पर पूर्वोत्तर से आने वाली सभी सकारात्मक ऊर्जा का ठहराव लंबे समय तक होता है। परिणाम स्वरूप शरीर की कोशिकाओं एवं स्नायुओं को आवश्यक सकारात्मक ऊर्जा का लाभ यहाँ पर रहने से मिलता है। दोपहर की धूप के प्रभाव के कारण यहां पर शरीर को आवश्यक कैल्शियम व फॉस्फोरस भी प्रर्याप्त में मिलता है जिससे कि हड्डियों को शक्ति मिलती है साथ ही शारीरिक कमजोरी को भी दूर किया जा सकता है। इसके इसी महत्व को समझते हुए वास्तुशास्त्र सलाह देता है कि घर के सभी बड़े सदस्य जैसे की नाना-नानी, दादा दादी, माता-पिता आदि को हमेशा दक्षिण-पश्चिम की नैऋत्य दिशा में बने कमरे में रहना चाहिए। यह उनके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है। घर के बड़े बुजुर्ग यदि स्वस्थ रहेंगे तभी वे परिवार के हित में कोई अच्छा निर्णय ले सकेंगे जिससे कि पूरे परिवार को लाभ मिलेगा।



गुरुवार, 4 नवंबर 2021

वास्तु शास्त्र का स्वास्थ्य से संबंध



 ईशान कोण से जाने स्वास्थ्य 


१) पूर्वोत्तर की ईशान्य उपदिशा:

किसी भी भवन की पूर्व दिशा के मध्य से लेकर उत्तर दिशा के मध्य का भाग ईशान्य कोण कहलाता है यह उपदिशा सबसे सौम्य और शीतल गुणों से युक्त होती है। प्रातः काल की सूर्य की कोमल किरणों का अधिक मात्रा में लाभ इस कोण को मिलता है जिसके कारण यह भवन के बाकी कोणों से अधिक लाभदायक एवं उपयुक्त सिद्ध होता है। इस दिशा में कमरा हमेशा प्रसन्नता एवं सुकून का अहसास दिलाता है। प्रातः काल की सूर्य की किरण में सभी प्रकार के पोषक तत्व समाविष्ट रहते हैं। ये पोषक तत्व मनुष्य के लिए अत्यंत लाभदायक होते हैं। इस दिशा में बने कमरे में रहने से सकारात्मकता की प्राप्ति होती है। बच्च का यहाँ पर रहना अत्यंत लाभदायक होता है। इस दिशा में रहने वाले बच्चे हमेशा स्वस्थ प्रसन्न, स्फूर्ति युक्त एवं सकारात्मक सोच विचार के साथ अध्ययन करते हैं व जीवन में सफलता पा सकते हैं



परिवार में यदि कोई धार्मिक या शुभ कार्य करना हो तो इस दिशा में बने कमरे का उपयोग करना चाहिए यह उपदिशा सभी प्रकार के शुभ कार्यों के लिए अत्यंत लाभदायक होती है। यदि परिवार संबंधी कोई हितका निर्णय लेना हो तो इस दिशा में बने कमरे का उपयोग करना चाहिए। यहाँ पर लिये जाने वाले किसी भी फैस पर सभी परिजनों की आपस में सहमति बनती है और हर एक फैसला सभी परिजनों के हित में कार्य करता है यहाँ पर सभी परिजनों का एकत्रित होना परिवार के लिए अच्छा होता है। सभी परिजन यहाँ पर अपने विद्या को बिना किसी भी प्रकार के दबाव को अनुभव किए हुए अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं। इसके मह को देखते हुए इस कोण को हमेशा स्वच्छ, सुगन्धित एवं प्रकाश युक्त रखना ही समझदारी मानी जाएगी।

जैन साध्वी महाप्रज्ञ

नवग्रह के रत्न

 रत्नों की जानकारी   यहां सिर्फ रत्नों के नाम बताएं गए है।  1. सूर्य ग्रह का रत्न मानिक्य व उपरत्न स्टार माणक, रतवा हकीक, तामडा,...