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स्वर-ज्ञान
॥ दोहा ॥
काल ज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान।
गुरु किरपा करि कहत हूँ, शुचि स्वरोदय ज्ञान।।
मैं पृथ्वी आदि मण्डलों में पवन के प्रवेश और नि:सरण काल के ज्ञानादि से आगम का अनुमान लेकर गुरु कृपा से प्राप्त किये हुए पवित्र स्वरोदय ज्ञान को कहता हूँ।
सुर का उदय पिछानिए, अति थिरता चित्त धारता
थी शुभाशुभ कीजिये, भावि वस्तु विचार ॥ ॥
नासिका के भीतर से जो श्वास निकलता है उसका नाम स्वर है। चित्त को अति स्थिर करके स्वर को पहचानना चाहिये और स्वर को पहचान कर भविष्य में होनहार के शुभाशुभ का विचार करना चाहिये।
नाड़ी तो तन में घनी, पिण चौबीस प्रधान ।
ता में दस पुणि ताहु में, तीन अधिक करि जान ॥ ॥
इंगला पिंगला सुखमना, ये तीनों के नाम।
भिन्न-भिन्न अब कहत हूँ, ता के गुण अरु धाम ॥ ॥
स्वर का सम्बन्ध नाड़ियों से है। यद्यपि शरीर में नाड़ियाँ बहुत हैं तथापि इनमें से चौबीस नाड़ियाँ प्रधान हैं और इन चौबीस नाड़ियों में से दस' नाड़ियाँ अति प्रधान हैं एवं उन दस नाड़ियों में से भी तीन नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी हैं। इनके नाम इंगला, पिंगला और सुषमना हैं। इनके गुणों और स्थानों का वर्णन आगे करेंगे।
भृकुटी चक्र सुं होत है, स्वासा को परकास।
बंकनाल के ढिग थई, नाभि करत निवास
नाभी थी फुनि संचरत, इंगला पिंगला धाम।
दक्षिण दिश है पिंगला, इंगला नाड़ी धाम ॥ ॥
इन दोऊ के मध्य में, सुखमन नाड़ी होय ।
सुखमन के परकास में, सुर पुनि चालत दोय ॥ ॥
दोनों भोहों के बीच में जो आज्ञाचक्र नाम का चक्र है वहाँ से श्वास का प्रकाश होता है तथा पिछली बंकनाल में से होकर नाभी में जाकर ठहरता है, वहाँ से फिर श्वास इंगला और पिंगला द्वारा निकलता है।
शरीर में मेरुदण्ड के दक्षिण (दाहिनी) दिशा की तरफ पिंगला (सूर्य) नाड़ी है तथा वाम (बायीं) तरफ इंगला (चन्द्र) नाड़ी है। इन दोनों नाड़ियों के मध्य में सुषुम्ना नाड़ी रहती है। सुषमन नाड़ी के प्रकाश से नाक के दोनों नथनों से स्वर (श्वास) चलता है।
डाबा सुर जब चलत है, चन्द्र उदय तब जान
जब सुर चालत जीमणो, होत तब भान ॥ ॥
इनमें से जब (इंगला नाड़ी द्वारा) बाँया (डाबा) स्वर चलता है तब चन्द्र का उदय जानना चाहिये तथा जब (पिंगला नाड़ी द्वारा) दाहिना (जीमना) स्वर चलता है तब सूर्य का उदय जानना चाहिये।
स्वरों के कार्य
सौम्य (शीतल और स्थिर) कार्यों को चन्द्र स्वर में करना शुभ है, क्रूर और चर कार्यों को सूर्य स्वर शुभ है। जब दोनों स्वर समान चलते हों उसे सुषमना स्वर कहते हैं। इस स्वर में प्रभु भजन और ध्यान के सिवाय अन्य कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस स्वर में किसी कार्य को करने से वह निष्फल होता है तथा उससे क्लेश भीउत्पन्न होता है।
चन्द्र चलत कीजे सदा, थिर कारज सुरभाल ।
चर कारज सूरज चलत, सिद्धि होय तत्काल ॥ ॥
इसलिये चन्द्र स्वर के चलते समय शीतल और स्थिर कार्यों को तथा सूर्य स्वर के चलते समय क्रूर और चर कार्यों को करना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से कार्य की सिद्धि तत्काल होती है।