रविवार, 31 अक्टूबर 2021

चंद्रमा का रत्न मोती

जाने मोती के प्रकार 


परिचय और प्रकार-मोती को संस्कृत में मुक्ता/मुक्तक कहा जाता है। यहूदी लोग इसे ‘गौहर' कहते हैं। अरबी में 'दुर्रा' तथा बांगला में पूती कहा जाता है। आंग्ल भाषा में उसे Pearl (पल) कहा जाता है। यह चन्द्रमा का प्रतिनिधि रत्न है। भारतीय मत से मोती 8 प्रकार का माना गया है। गजमुक्ता, सर्पमुक्ता, वंशमुक्ता, शूकरमुक्ता, मीनमुक्ता, मेघमुक्ता, सीपमुक्ता तथा आकाशमुक्ता। (शंखमुक्ता के नाम से भी मोती प्राप्त होता है, किंतु उसे सीपमुक्ता का ही प्रभेद माना जाता है। यद्यपि कुछ विद्वान शंखमुक्ता को अलग प्रकार में गिनते हैं। वे आकाशमुक्ता को मेघमुक्ता के अन्तर्गत मानते हैं। अतः मोती के कुल प्रकार 8 ही मान्य हैं। यह एक विलक्षण तथ्य है कि मोती की प्राप्ति चन्द्रमा को शत्रुओं में गिनने वाले ग्रहों के कारकों से होती है। जबकि मोती चंद्रमा का रत्न है। (मेघ, शूकर, गज, राहु के सर्प-शनि व राहु का, वंश, शंख, सीप, शुक्र के, आकाश गुरु का तथा मीन केतु का कारक / प्रतिनिधि हैं)। संभवतः उसका कारण यह है कि चंद्र के शत्रु ये ग्रह अपने कारकों के माध्यम से चन्द्र के तेज का शोषण कर लेते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनमें मोती निर्मित होता है। यदि इस थ्योरी/ सम्भावना को सत्य मानें तो मोती और भी अधिक प्रबलता से चंद्र का प्रतिनिधि सिद्ध होता है। इन मोतियों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं।




1. गजमुक्ता-गजमुक्ता उन हाथियों के कुम्भस्थलों या दन्तकोषों में मिलता है जिनका जन्म सोमवार या रविवार को पुष्य नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र के उत्तरायण काल में होता है। इन मोतियों को संसार के श्रेष्ठतम मोतियों में गिना जाता है। ये है स्निग्ध, सुडौल तथा अति तेजस्वी होते हैं। वर्ण शुभ्र श्वेत या धूसर भी होता है। इनके दर्शन मात्र से नेत्रों को शीतलता तथा मन को शांति प्राप्त होती है। इन मोतियों को बिना बिंधवाए अपने पास या पूजा में रखना चाहिए क्योंकि ये अत्यंत पवित्र व प्रभावशाली होते हैं। अंगूठी या लॉकेट आदि में (माला में नहीं बिंधवाए बिना) उन्हें धारण भी किया जा सकता है। इसको समस्त क्लेशों का नष्टकर्त्ता, अपार शांति एवं चारों पुरुषार्थो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का प्रदान करने वाला, कल्याणप्रद कहा गया है।

2. सर्पमुक्ता/नागमुक्ता-शास्त्रों के अनुसार वासुकि जाति के नागों में (जो सांपों की श्रेष्ठतम जाति मानी गई है) यह मोती उनके फनों में पाया जाता है। नाग की आयु बढ़ने के साथ-साथ इस मोती के आकार में वृद्धि होती है। यह तेजयुक्त और प्रभावशाली होता है तथा नीली आभायुक्त होता है। दुर्लभ है अतः कोई विरला ही अति भाग्यवान व्यक्ति उस मोती को प्राप्त कर पाता है। यह मोती सर्व मनोकामनाओं का पूर्ण करने वाला कहा गया है। कुछ विद्वान इसी को नागमणि कहते हैं। किंतु कुछ विद्वान इसे नागमणि से भिन्न मानते हैं। वर्तमान काल में उस मोती की उपलब्धता के प्रमाण नहीं मिलते।

3. शूकरमुक्ता-वाराह वर्ग में उत्पन्न सूअर के मस्तक में यह मोती प्राप्त होता है। युवा सूअर के मस्तिष्क में यह मोती अपने श्रेष्ठ आकार में होता है। इससे पूर्व व पश्चात क्षीण होता जाता है। कुछ विद्वानों के मत में यह युवा सूअर के मस्तक ही में पाया जाता है। यह हरी सी आभा वाला, वर्तुल, सुन्दर एवं चमकदार होता है। उसे धारण करने से वाक्शक्ति और स्मरण शक्ति मुखरित होती है। वाक्सिद्धि में सहायक होता है। कहा जाता है कि जो स्त्रियां केवल कन्याओं को ही जन्म देती हैं, वे यदि इस मोती को धारण करें तो उन्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होता है।

4. मीनमुक्ता/मत्स्यमुक्ता- यह किसी-किसी मछली के पेट से प्राप्त होता है तथा आकार में गोल न होकर तिकोना सा एक ओर को Pointed सा (चने जैसा) होता है। उसकी चमक अपेक्षाकृत कम या अधिक हो सकती है किंतु रंग सदैव पीली सी आभा लिए होता है। इसको धारण करने से आरोग्य, आयु एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। विशेषतः क्षयरोग (Tob) के निवारणार्थ उसका प्रभाव अद्भुत माना गया है। अधिक चमकदार मोती को पानी के भीतर भी (नदी/ समुद्र आदि) ले जाया जाए तो प्रकाश सा प्रतीत होता है। यह प्राणों फेफड़ों की सामर्थ्य में वृद्धि करता है।

5. वंशमुक्ता- बांस के जंगलों में, जिन बांसों में यह मोती रहता है, वहां पुष्य नक्षत्र, श्रवण नक्षत्र तथा स्वाति नक्षत्र से एक दिन पूर्व से नक्षत्र के समाप्ति काल तक एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि गुंजित होने लगती है जिसे 'वेदध्वनि' कहा जाता है। इस ध्वनि से मोतीयुक्त बांस की पहचान हो जाती है। तब उस बांस को बीच से काटकर उसके भीतर से मोती निकाला जाता है। यह चिकना, स्निग्ध, गोल किंतु अल्पकांति वाला या चमकविहीन होता है। यह सौभाग्य, यश, एवं अटूट संपत्ति तथा ऐश्वर्य प्रदान करने वाला कहा गया है। किंतु यह सब बांसों में नहीं पाया जाता, किसी-किसी बांस में होता है।


. मेघमुक्ता व आकाशमुक्ता-(कुछ विद्वान इन्हें पृथक-पृथक मानते हैं। कुछ के अनुसार ये एक ही है, किंतु वर्तमान में अनुपलब्धता के कारण प्रमाणित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, तथापि इनकी उत्पत्ति प्रायः समान ढंग से या समान माध्यमों से ही मानी गई है)। पुष्य नक्षत्र में हुई वर्षा में कभी आकाशमुक्ता भी गिरता है जिसको विद्युत की भांति चमकदार (रुपहला) तथा गोल बताया गया है। यह अति • सौभाग्यप्रद, तेजप्रद तथा अकूत संपत्ति का प्रदाता कहा गया है। रविवार को पुष्य/ श्रवण नक्षत्र में हुई वर्षा में मेघमुक्ता का गिरना माना गया है। इसे मेघ के समान कांति वाला (हल्का 'ग्रेईश') बताया जाता है। जिसे यह मोती प्राप्त हो जाए उसको कोई अभाव नहीं रहता। (हमारे विचार में इनको दिव्य मुक्ता मानना चाहिए। क्योंकि अनेकों विशिष्ट समय की वर्षाओं में यह एकाध ही गिरने की बात कही गई है। किंतु वर्तमान युग में ऐसा मोती सुनने देखने में नहीं आया है)।


7. शंखमुक्ता पांचजन्य नामक एक विशिष्ट शंख (जिसे भगवान कृष्ण बजाया करते थे) समुद्र में ज्वार-भाटे की उथल-पुथल के कारण यदा-कदा ऊपर आ जाता है। उसी प्रजाति के शंखों के भीतर से शंखमुक्ता की उत्पत्ति मानी गई है। इसकी रंगत समुद्र के जल की भांति हल्की फिरोजी हल्की आसमानी बताई गई है। यह सुडौल, सुंदर, तथा 3 रेखाओं से युक्त होता है, जो यज्ञोपवीत की भांति इस पर खिंची रहती हैं। यद्यपि यह कान्ति (चमक) से रहित होता है किंतु प्रभावशाली व शुभदायक होता है। आरोग्यता तथा स्थिर लक्ष्मी प्रदान कर सभी अभावों को दूर करता है। उसको भी बींधा जाना वर्जित है। पूजा में रखा जाता है, या शुचिता निर्वाह के साथ अपने पास रखा जाता है। या अंगूठी लॉकेट में धारण किया जा सकता है।


8. सीपमुक्ता- यही मोती साधारणतः माला, अंगूठी आदि में धारण किया जाता है और सर्वाधिक पाया जाता है। इन्हीं मोतियों की बींधे जाने का विधान अनुमति है। स्वाति नक्षत्र में आकाश से गिरी ओस / जल की बूंद जब किसी सीप के मुख में गिरती है तो उस सीप के गर्भ में कालांतर में मोती के रूप में परिणित होती है। यही मोती चंद्र का विशेष प्रचलित प्रतिनिधि रत्न है। यह लम्बा, गोल, वर्तुल, चपटा, अंडाकार आदि कई आकारों में प्राप्त होता है। कभी-कभी जुड़वां रूप में भी दो या अधिक मोती सॉश्लष्ट मिलते हैं। इनका रंग दूध की भांति सफेद या 'क्रीमिश' या 'गंदुमी' होता है। विश्व के सभी समुद्रों में मोती पाए जाते हैं किंतु वसरा की खाड़ी में पाए जाने वाले मोती सर्वोत्तम माने गए हैं। इसे धारण करने से चित्त व मस्तिष्क में शांति आती है तथा धनादि के साथ स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है। (मेघमुक्ता व आकाशमुक्ता को पृथक मानने वाले विद्वान शंखमुक्ता और सीपमुक्ता को एक श्रेणी में गिनते हैं। यह पहले भी कह आए हैं। अतः प्राकृत मोतियों के 8 प्रकार ही मान्य हैं)।

जैन साध्वी महाप्रज्ञ

मोती का महत्व जानने के लिए अगली पोस्ट पढ़ें।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

क्या कहती है आपकी हथेली

हथेली से जाने स्वभाव  


हथेली 

मणिबन्ध से आगे अँगलियों तक के मूल भाग को हथेली करतल अथवा 'पाणितल' कहते हैं तथा हथेली के पृष्ठ भाग को कर पृष्ठ की संज्ञा दी गई है। हथेली पर ही मुख्य रेखाएं अवस्थित रहती हैं तथा करपृष्ठ की बनावट एवं रोम-शिराओं के आधार पर जातक के स्वभाव, चरित्र एवं शुभाशुभ का विवेचन किया जाता है। इस प्रकरण में इन दोनों से सम्बन्धित प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वानों के मत का

उल्लेख किया जा रहा है।


हथेली 

भारतीय आचार्यों के मतानुसार हथेली के निम्नलिखित 20 भेद होते हैं


 (1) सवृत निम्न (Round Hollow)- ऐसी हथेली वर्तुलाकार होती है तथा उसका मध्य भाग गोल अण्डे की भांति भीतर की ओर धँसा रहता है तथा जातक ऐश्वर्यशाली तथा सर्वसुख सम्पन्न होता है। स्त्रियां धर्माचारिणी तथा धनवती होती हैं।


(2) उन्नत (Developed)-ऐसी हथेली मध्य भाग में ऊँची उठी रहती है तथा जातक धनी, सखी, धर्मात्मा, उदार तथा दानी होता है। 



(3) निम्न (Hollow)-ऐसी हथेली का मध्य भाग नीचे धँसा रहता है तथा जातक दुर्भाग्यशाली, निर्धन, दुःखी परन्तु सन्तोषी पराक्रमी और धीर होता है।



(4) विषम (Uneven)-ऐसी हथेली का मध्य भाग कहीं उभरा और कहीं नीचे की ओर धँसा हुआ होता है तथा जातक धूर्त, दरिद्र, लम्पट, क्रूर, विश्वासघाती तथा धनहीन (5) रोम-शिराहीन (Hair Nerveless) ऐसी हथेली में रोम तथा शिरा दिखाई नहीं देते तथा जातक सुखी तथा सौभाग्यशाली होता है।

(6) धनमाँस (Well Developed)- ऐसी हथेली कठोर मांसल होती है तथा जातक सौभाग्यशाली, सुखी तथा धनी होता है।


 (7) स्निग्ध (Bright)-ऐसी हथेली चिकनी तथा  चमकीली होती है तथा जातक शुभ फल प्राप्त करने वाला तथा सुखी होता है।

(8) अनुन्नत अनिम्न (Neither Developed Nor Hollow) ऐसी हथेली सामान्यतः पतली होती है और न अधिक उभरी तथा न अधिक धँसी हुई होती है तथा जातक कायर, निरुत्साही, दुःखी तथा अस्त-व्यस्त जीवन बिताने वाला होता है।

(9) रूक्ष किंवा अचिक्कण (Rough) - ऐसी हथेली रूखी होती है तथा जातक दुःखी तथा संकट भोगने वाला होता है।

 (10) खर (Very hot)- ऐसी हथेली बहुत गर्म होती है तथा जातक धन तथा परिवार सम्बन्धी संकटों से ग्रस्त रहता है।

(11) विपर्ण अथवा निस्तेज (Sad or Dismal)-ऐसी हथेली फीकी कान्तिहीन होती है तथा जातक आर्थिक तथा अन्य प्रकार के संकटों से ग्रस्त बना रहता है।


(12) मृदु उन्नत (Soft and developed)- ऐसी हथेली कोमल तथा मध्य भाग में उभरी होती है तथा जातक सद्गुणों, धीर, गम्भीर, परिश्रमी, परोपकारी, धनी, सुखी, नीतिज्ञ, दयालु, स्थिर बुद्धि, दूरदर्शी, सदाचारी तथा प्रतिभाशाली होता है। (13) अस्वेदन-ऐसी हथेली पसीने से रहित होती है तथा जातक सुखी एवं सफल जीवन बिताता है।

(14) मृदु- सुवर्ण (Soft and Colourful)-ऐसी हथेली अत्यन्त कोमल तथा सुनहरे रंग की तथा कमल-गर्भ के समान अत्यन्त सुन्दर होती है और जातक समस्त बीबीसद्गुणों से युक्त, धन वाहन सम्पन्न, उच्चाधिकारी तथा सब प्रकार से सुखी होता है। 

(15) मृद (Soft)-ऐसी हथेली अत्यन्त कोमल होती है तथा जातक सली तथा शान्त जीवन बिताता है।

 (16) कठोर (Hard) - ऐसी हथेली कड़ी होती है तथा जातक कठोर शारीरिक परिश्रम द्वारा आजीविका उपार्जित करता है। वह अस्थिरमति, चंचल, अल्प-शिक्षितथा अदूरदर्शी होता है।


17) रेखाहीन (Line-less)- ऐसी हथेली में रेखाओं का अभाव रहता है तथा जातक दुःखी, निर्धन, आलसी, अल्पायु, असफल, बुद्धिहीन, सर्वत्र तिरस्कृत तथा भिक्षुक होता है।



(18) बहुरेखीय (Thickly-lined)- ऐसी हथेली में बहुत अधिक रेखाएं पाई जाती हैं तथा जातक अल्पायु, दुःखी, निर्धन, दुर्भाग्यशाली, मन्दबुद्धि तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में असफल होता है।




(19) विस्तीर्ण (Broad)-ऐसी हथेली चौड़ी तथा फैली हुई होती है तथा जातक उदार, परिश्रमी, बुद्धिमान, धनी, दूरदर्शी, धीर, गम्भीर, सत्यवादी, सदाचारी, सद्गुणी यशस्वी, परोपकारी तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएं पाने वाला होता है। 

(20) प्रोत्सान (Highly developed ) - ऐसी हथेली अत्यधिक उन्नत तथा उभरी हुई होती है तथा जातक दानी, अत्यन्त उदार तथा उच्चश्रेणी का महापुरुष होता है।




मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

मूंगे से चिकित्सा

मूंगे के लाभ विशेष चिकित्सा 


1. रक्त संबंधी विकारों में मूंगा बहुत लाभकारी है। इसकी भस्म को शहद के साथ सेवन करे या मूंगा डालकर रखे गये जल का सेवन करें।
2. निम्न रक्तचाप में एक दाना मूंगा, एक दाना रुद्राक्ष के क्रम में व तार में बनी हृदय तक लम्बी माला धारण करना लाभकारी है। अथवा मूंगे की भस्म का शहद के साथ सेवन करना चाहिए।

3. दिल डूबना/दिल घबराना/ दिल की कमजोरी तथा मन का उचाट रहन

जैसे रोगों में प्रवाल पिष्टी (मूंगे की पिट्ठी) का सेवन करना चाहिए।

4. मंदाग्नि, अरुचि, भूख न लगना तथा पाचन तंत्र की सुस्ती दूर करने के लिए मूंगाभस्म या प्रवाल पिष्टी गुलाबजल के साथ लें। तांबे के पात्र में मूंगा इल
कर रखा गया जल नित्य पीना भी लाभ देता है।

5. प्लीहे की समस्या या पेट का दर्द हो तो मूंगे की भस्म मलाई के साथ चाटने से आराम आता है। मूंगे की भस्म का सेवन शारीरिक कमजोरी तथा पट्ठों की
निर्बलता को भी दूर करता है।

6. हृदय रोग, मिर्गी, वायुकम्प आदि रोगों में मूंगे की भस्म का दूध के साथ सेवन करना चाहिए। अथवा प्रवाल पिष्टी व मुक्ता भस्म शहद में मिलाकर चाटें।
7. सिरदर्द तथा सिर के बाल उड़ जाने की समस्या में मूंगा (प्रायः 8/9 रत्ती एक लीटर तेल में) डालकर पकाया गया सरसों का तेल (आधा लीटर रह जाने तक
पकाए) मालिश के रूप में प्रयोग करना लाभकारी होता है। (तीव्र व अधिक लाभ के लिए तेल को बाद में लाल शीशी में बंद कर एक सप्ताह तक सूर्य किरणों से
सिद्ध कर लेना चाहिए। यह शरीर दर्द/जोड़ों के दर्द में भी लाभ देता है)।

मूंगे की प्रभाव-अवधि एवं वजन-कुछ विद्वान मूंगा 6 से 8 रत्ती तक का ही धारण करने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार 6 रत्ती से कम व 8 रत्ती से अधिक वजन का मूंगा प्रभावी नहीं होता। किंतु ऐसा नहीं है। सवा 5 रत्ती से सवा 97 तक का मूंगा अंगूठी में धारण किया जा सकता है। लॉकेट के रूप में सवा दस या सवा बारह रत्ती का मूंगा पहना जा सकता है। दरअसल साढ़े तीन रत्ती से कम का
कोई भी रत्न (हीरा अपवाद है) प्रभावी नहीं होता। अतः सवा 4 रत्ती से आम तौर पर रत्न पहनने की शुरूआत (अंगूठी के रूप में) होती है। किन्तु 4 (कक) मंगल की नीच राशि है अतः 5 (सवा 5) रत्ती से कम का मूंगा नहीं धारण करना चाहिए। जैसा कि नियम है।

मूंगे की प्रभाव-अवधि तीन वर्ष तीन दिन मानी गई है। इसके बाद मूंगा बदल लेना चाहिए या उसकी पुनः प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिए। मूंगा (नीलम के बाद) अति शीघ्र प्रभाव दिखाता है तथा उग्र होता है। अतः पहले इसका परीक्षण (सूट करता है, या नहीं) कर लेना चाहिए।





विशेष सबसे पहले अपनी कुंडली किसी अच्छे ज्योतिषी को दिखाए । क्योंकि ऐसा न हो की आपको मूंगा रास न आए और आपको लाभ की जगह नुकसान हो जाए। 

जैन साध्वी महाप्रज्ञ 


गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

वास्तु के अनुसार भूमि का चयन

वास्तु के अनुसार भूमि का चयन
वर्तमान युग में वास्तु का बोल- बोला चल रहा है। इस युग व्यक्तियों की वास्तु नई विद्या लगती है। लेकिन ये विद्या पुरातन समय से चली आ रही है। जैन धर्म के अनुसार जब हम कोई के आगम पढ़ते है और उनमें जब किसी भी नगरी
का वर्णन किया जाता है तो ईशान कोण में देवालय और बावड़ी का वर्णन किया जाता है। इन सब बातों से मालूम होता है कि वास्तु विज्जा आज की नहीं है। पुरातन कालसे चली आ रही है।
संस्कृत में कहा गया है कि गृहस्थस्य क्रिया स्सर्वानवास्तु शास्त्र घर प्रासाद
सिद्धयन्ति गृहं विना "
भवन अथवा मंदिर निर्माण करने
का - प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के अनुसार आर्किटेक्चर
का रूप माना जा सकता है ।

शिल्प शास्त्रों में मंदिर और मकान आदि के प्रत्येक अंग का

प्रमाण और नियत स्थान बाता कर कहा गया है कि जैन चैत्यालय चैत्यमुतनिर्मापयन् शुभम्
वाञ्छन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लांघयेत् । प्रतिष्ठासार अर्थात अपना राजा का और प्रजा का कल्याण चाहने वाले को जिन मंदिर जिन प्रतिमा और उनके उपकरण आदि शिल्पशास्त्रानुसार 'ही बनाने चाहिए। शिल्प शास्त्र के नियमों का किञ्चितभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए
अन्यत्र भी कहा है - प्रसादो मण्डपश्चैव विना  शास्त्रेण यः कृत: ।
विपरीत विभागेषु, यो ऽन्यथा
विनिवेशयेत् ||
विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते ।
आयु नाशो मनस्तापः पुत्र - नाश : कुलक्षय: ॥

शास्त्र प्रमाण के बिना यदि देवालय, मण्डप, गृह, दूकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ठी मिलेगा, अरिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश होगा, पुत्रनाश कुल क्षय और मनस्ताप होगा ।
भूमि चयम भूमि चयन मन्दिर निर्माणविधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि योग्य भूमि पर निर्मित जिनभवन ही लम्बेकाल तक स्थित रहकर भव्य जीवों के कल्याण का साधन बनता है।


जहां मन्दिर का निर्माण करना हो वह भूमि शुद्ध हो रम्य हो स्निग्ध हो, सुगन्धवाली हो, दुर्वा से आच्छादित हो, पोली एवंकीडे मकोडे वाली न हो श्मशान भूमि न हो गड्ढों वाली नहीं हो तथा अपने वर्ण सदृश गन्ध वाली और स्वादयुक्त हो। ऐसी भूमि मन्दिर निर्माण के योग्य कही गई है।
जो भूमि नदी के कटाव में हो, जिसमें बड़े- बड़े पत्थर हो जो पर्वत के अग भाग से मिली हुई हो छिदवाली, टेढ़ी, सूपाकार दिग्सूद, निस्तेज, मध्य से विकटरूप वाली, रूखी, बाँबी चौराहे वाली दीर्घ काम वृक्षों वाली, भूत प्रेत आदि के निवास वानी तथा रेतीली ( भूमि ) हो उसे त्याग देना चाहिए ।
आचार्य जयसेन ने नगर के शुद्ध प्रदेश में अटवी एवं नदीके समीप में और पवित्र तीर्थ भूमि में मंदिर का निर्माण प्रशस्त
कहा है।

वसुनन्दी आचार्य जी ने तीर्थकरों, भगवानों के जन्म, निष्क्रमण ज्ञान एवं निर्वाण भूमि में अन्य पुण्य प्रदेशों में, नदी तट पर्वतग्राम सन्निवेश, समुद्र पुलिन आदि मनोज्ञ स्थानों पर मन्दिरों कानिर्माण प्रशस्त कहा है।


नगर में दिशा के अनुसार आवास :
गृह निर्माण के लिए भूमि का चयन करते समय पर ध्यान
रखना आवश्यक है कि गृहभूमि ग्राम व नगर के चारों कोनों
में न हो क्योंकि कोष के निवास हेतु शिल्पग्रन्थों में महत्वरो
जाविच्छूतों एवं अन्त्यजों को उपदेशित किया गया है।
पुर भवन ग्रामाणी ये कोणास्तेषु निवसतां दोष:
श्वपचादयो त्यजास्तेष्वेव विवृद्धिमायांति

अर्थात् नगर एवं ग्राम के चारों कोणों में गृह बनाकर निवास
से नाना तरह के कष्ट होते हैं किन्तु यदि नगर के कोणों में खपच आदि निम्न स्तर की जातियों के आवास बने तो उनकीहोती है।


वैश्यानां दक्षिणे मागे, पश्चिमे शुडकास्तथा ।
आग्नेयादि क्रमेणैव
जाति भ्रष्टाश्च अन्त्यजा वर्ण संकरा ॥
चौराश्च विदिकस्या : शोभना : स्मृतः ।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया: वैश्या: शूडा : प्रागादिषु क्रमात ॥
अर्थात वैश्य का नगर के दक्षिण भाग में और अन्त्यजे
एवं वर्ण संकरों का वास आग्नेयादि कोणों में शुभ होता है।

ग्राम या नगर के कोणों में जातिच्युत और चोरों का वास शुभद होता है।
पूर्वादि दिशाओं में क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्धों का निवास सभी दृष्टिकोणो से लाभदायकरहता है।

गृह के लिए भूमि चयन :
मन्दिर निर्माण के योग्य जो भूमि कही गई है, वही लक्षण
गृह भूमि के लिए भी समझने चाहिए इसके अतिरिक्त भी विशेष चयन निम्नलिखित प्रकार से है 

श्लोक ★★
गृहस्वामि भयञ्चैत्ये
बल्मीके विपदः स्मृताः ।
धूर्तालय समीपे तु पुत्रस्य मरणं ध्रुवं ।।
अर्थात चैत्य भूमि गृहस्वामी को भय देने वाली बांबी युक्त भूमि विपत्ति देने वाली तथा बोली, चरित्र एवं आचरण से हीनमनुष्य के आवास के समीप वाली भूमि सन्तान - नाशकारी कही गई है।
★ लोक चतुष्पधे त्वकीर्ति स्यादुद्द्वेगो देवसद्मन ।
अर्थहानिश्च सचिवे व विपद उत्कटा ।

अर्थात् चौराहे पर मकान बनाने से कीर्ति का नाश होता है।
देवमंदिर की भूमि पर घर बनाने से उद्वेग, मंत्री के स्थान पर घर बनाने से धनहानि तथा गड्ढे में घर बनाने से घोर विपत्ति आती है।

श्लोक

मनसश्चक्षुषो- यंत्रः सन्तोषो जायते भुवि ।

तस्यां कार्य गृहं सर्वैरीति गर्गादिसम्मतम् ।।

जिस भूमि से मन एवं आँख को सन्तोष प्राप्त हो उस भूमि
पर घर अवश्य बनाना चाहिए ।
स्पर्श के आधार पर भूमि का चयन :
जिस भूमि को स्पर्श करने पर ग्रीष्म ऋतु में ठंडी ज्ञात हो

सर्दी में गर्म तथा वर्षा ऋतु में ठंडी व गर्म दोनो तरह की ज्ञात हो वह भूमि प्रशंसनीय कही गई है।

जो भूमि चिकनी मूल्याम तथा कंटक रहित हो वह श्रेष्ठ है।
जो भूमि अतिकठोर हो वह उद्योग के लिए उचित है निवास के लिए नहीं । यहाँ श्रमिकों को बसाया जा सकता है।

नवग्रह के रत्न

 रत्नों की जानकारी   यहां सिर्फ रत्नों के नाम बताएं गए है।  1. सूर्य ग्रह का रत्न मानिक्य व उपरत्न स्टार माणक, रतवा हकीक, तामडा,...