वर्तमान युग में वास्तु का बोल- बोला चल रहा है। इस युग व्यक्तियों की वास्तु नई विद्या लगती है। लेकिन ये विद्या पुरातन समय से चली आ रही है। जैन धर्म के अनुसार जब हम कोई के आगम पढ़ते है और उनमें जब किसी भी नगरी
का वर्णन किया जाता है तो ईशान कोण में देवालय और बावड़ी का वर्णन किया जाता है। इन सब बातों से मालूम होता है कि वास्तु विज्जा आज की नहीं है। पुरातन कालसे चली आ रही है।
संस्कृत में कहा गया है कि गृहस्थस्य क्रिया स्सर्वानवास्तु शास्त्र घर प्रासाद
सिद्धयन्ति गृहं विना "
भवन अथवा मंदिर निर्माण करने
का - प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के अनुसार आर्किटेक्चर
का रूप माना जा सकता है ।
शिल्प शास्त्रों में मंदिर और मकान आदि के प्रत्येक अंग का
प्रमाण और नियत स्थान बाता कर कहा गया है कि जैन चैत्यालय चैत्यमुतनिर्मापयन् शुभम्
वाञ्छन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लांघयेत् । प्रतिष्ठासार अर्थात अपना राजा का और प्रजा का कल्याण चाहने वाले को जिन मंदिर जिन प्रतिमा और उनके उपकरण आदि शिल्पशास्त्रानुसार 'ही बनाने चाहिए। शिल्प शास्त्र के नियमों का किञ्चितभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए
अन्यत्र भी कहा है - प्रसादो मण्डपश्चैव विना शास्त्रेण यः कृत: ।
विपरीत विभागेषु, यो ऽन्यथा
विनिवेशयेत् ||
विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते ।
आयु नाशो मनस्तापः पुत्र - नाश : कुलक्षय: ॥
शास्त्र प्रमाण के बिना यदि देवालय, मण्डप, गृह, दूकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ठी मिलेगा, अरिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश होगा, पुत्रनाश कुल क्षय और मनस्ताप होगा ।
भूमि चयम भूमि चयन मन्दिर निर्माणविधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि योग्य भूमि पर निर्मित जिनभवन ही लम्बेकाल तक स्थित रहकर भव्य जीवों के कल्याण का साधन बनता है।
जहां मन्दिर का निर्माण करना हो वह भूमि शुद्ध हो रम्य हो स्निग्ध हो, सुगन्धवाली हो, दुर्वा से आच्छादित हो, पोली एवंकीडे मकोडे वाली न हो श्मशान भूमि न हो गड्ढों वाली नहीं हो तथा अपने वर्ण सदृश गन्ध वाली और स्वादयुक्त हो। ऐसी भूमि मन्दिर निर्माण के योग्य कही गई है।
जो भूमि नदी के कटाव में हो, जिसमें बड़े- बड़े पत्थर हो जो पर्वत के अग भाग से मिली हुई हो छिदवाली, टेढ़ी, सूपाकार दिग्सूद, निस्तेज, मध्य से विकटरूप वाली, रूखी, बाँबी चौराहे वाली दीर्घ काम वृक्षों वाली, भूत प्रेत आदि के निवास वानी तथा रेतीली ( भूमि ) हो उसे त्याग देना चाहिए ।
आचार्य जयसेन ने नगर के शुद्ध प्रदेश में अटवी एवं नदीके समीप में और पवित्र तीर्थ भूमि में मंदिर का निर्माण प्रशस्त
कहा है।
वसुनन्दी आचार्य जी ने तीर्थकरों, भगवानों के जन्म, निष्क्रमण ज्ञान एवं निर्वाण भूमि में अन्य पुण्य प्रदेशों में, नदी तट पर्वतग्राम सन्निवेश, समुद्र पुलिन आदि मनोज्ञ स्थानों पर मन्दिरों कानिर्माण प्रशस्त कहा है।
नगर में दिशा के अनुसार आवास :
गृह निर्माण के लिए भूमि का चयन करते समय पर ध्यान
रखना आवश्यक है कि गृहभूमि ग्राम व नगर के चारों कोनों
में न हो क्योंकि कोष के निवास हेतु शिल्पग्रन्थों में महत्वरो
जाविच्छूतों एवं अन्त्यजों को उपदेशित किया गया है।
पुर भवन ग्रामाणी ये कोणास्तेषु निवसतां दोष:
श्वपचादयो त्यजास्तेष्वेव विवृद्धिमायांति
अर्थात् नगर एवं ग्राम के चारों कोणों में गृह बनाकर निवास
से नाना तरह के कष्ट होते हैं किन्तु यदि नगर के कोणों में खपच आदि निम्न स्तर की जातियों के आवास बने तो उनकीहोती है।
वैश्यानां दक्षिणे मागे, पश्चिमे शुडकास्तथा ।
आग्नेयादि क्रमेणैव
जाति भ्रष्टाश्च अन्त्यजा वर्ण संकरा ॥
चौराश्च विदिकस्या : शोभना : स्मृतः ।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया: वैश्या: शूडा : प्रागादिषु क्रमात ॥
अर्थात वैश्य का नगर के दक्षिण भाग में और अन्त्यजे
एवं वर्ण संकरों का वास आग्नेयादि कोणों में शुभ होता है।
ग्राम या नगर के कोणों में जातिच्युत और चोरों का वास शुभद होता है।
पूर्वादि दिशाओं में क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्धों का निवास सभी दृष्टिकोणो से लाभदायकरहता है।
गृह के लिए भूमि चयन :
मन्दिर निर्माण के योग्य जो भूमि कही गई है, वही लक्षण
गृह भूमि के लिए भी समझने चाहिए इसके अतिरिक्त भी विशेष चयन निम्नलिखित प्रकार से है
श्लोक ★★
गृहस्वामि भयञ्चैत्ये
बल्मीके विपदः स्मृताः ।
धूर्तालय समीपे तु पुत्रस्य मरणं ध्रुवं ।।
अर्थात चैत्य भूमि गृहस्वामी को भय देने वाली बांबी युक्त भूमि विपत्ति देने वाली तथा बोली, चरित्र एवं आचरण से हीनमनुष्य के आवास के समीप वाली भूमि सन्तान - नाशकारी कही गई है।
★ लोक चतुष्पधे त्वकीर्ति स्यादुद्द्वेगो देवसद्मन ।
★
अर्थहानिश्च सचिवे व विपद उत्कटा ।
अर्थात् चौराहे पर मकान बनाने से कीर्ति का नाश होता है।
देवमंदिर की भूमि पर घर बनाने से उद्वेग, मंत्री के स्थान पर घर बनाने से धनहानि तथा गड्ढे में घर बनाने से घोर विपत्ति आती है।
श्लोक
मनसश्चक्षुषो- यंत्रः सन्तोषो जायते भुवि ।
तस्यां कार्य गृहं सर्वैरीति गर्गादिसम्मतम् ।।
जिस भूमि से मन एवं आँख को सन्तोष प्राप्त हो उस भूमि
पर घर अवश्य बनाना चाहिए ।
स्पर्श के आधार पर भूमि का चयन :
जिस भूमि को स्पर्श करने पर ग्रीष्म ऋतु में ठंडी ज्ञात हो
सर्दी में गर्म तथा वर्षा ऋतु में ठंडी व गर्म दोनो तरह की ज्ञात हो वह भूमि प्रशंसनीय कही गई है।
जो भूमि चिकनी मूल्याम तथा कंटक रहित हो वह श्रेष्ठ है।
जो भूमि अतिकठोर हो वह उद्योग के लिए उचित है निवास के लिए नहीं । यहाँ श्रमिकों को बसाया जा सकता है।
Good information
जवाब देंहटाएंTq maharaji
जवाब देंहटाएंBahut sunder jankari di aapne behan maharaji
जवाब देंहटाएंVERY USEFULL ARTICAL
जवाब देंहटाएंसुंदर अति सुंदर
जवाब देंहटाएंBahut khoob jankari
जवाब देंहटाएंBhut sunder vishleshen
जवाब देंहटाएंBhut ache information share karne ke liye dhanyvad maharaj ji.
जवाब देंहटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएंGood
जवाब देंहटाएंGood information behan maharaji
जवाब देंहटाएंThanks a lot to all of you
हटाएं👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻🌹🌹🌹🌹💐💐💐💐💐💐🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻 बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय बहन मुझसे साझा करने के लिए। आपके उद्बोधन को आप मुझसे हमेशा ही साझा करें मुझे आपके उद्बोधन हमेशा से ही बहुत प्रिय हैं।
जवाब देंहटाएंGood knowledge
जवाब देंहटाएंYe knowledge har kisi ko nahi hoti
जवाब देंहटाएंThank you hmase share karne k liye
Bhgvaan aapke gyan ko aise hi badhye
जवाब देंहटाएंBhgvaan ki kripa aap pr bni rhe
👌🙏
जवाब देंहटाएंअति उत्तम
जवाब देंहटाएंNamaskar didi ji
जवाब देंहटाएंBahut sunder jankari di aapne
Nice dii
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