मंगलवार, 3 मई 2022

अक्षय तृतीया का महत्व भगवान आदिनाथ का जीवन परिचय




 भगवान ऋषभ देव का अक्षय तृतीया को पारणा

भगवान ऋषभदेव

तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के साधन

भगवान ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्म नायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के 84 लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों को व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ। आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है। सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे आत्मा त्रिकाल ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान को सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देखकर हम उनको बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं। उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के महा-महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं।

जब साधारण पुण्य फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्रिलोक पूज्य तीर्थङ्कर पद जैसी विशिष्ट पुण्य प्रकृति सहज ही किसी को कैसे प्राप्त हो सकती है? उसके लिए बड़ी तपस्या, भक्ति और साधना की जाय, तब कहाँ उसकी उपलब्धि हो सकती है। जैनागम ज्ञाताधर्म कथा में तीर्थङ्कर गोत्र के उपार्जन के लिए वैसे बीस स्थानों का आराधन आवश्यक कारणभूत माना गया है
भगवान आदिनाथ जो वीतराग थे। लाभालाभ में समचित्त होकर अग्लान भाव से ग्राम, नगर आई में विचरते रहे। भावुक पतजन आदिनाथ प्रभु को अपने यहाँ आये देखकर प्रसन्न होते। कोई अपनी सुन्दर कन्या कोई उत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषण, कोई हस्ती, अश्व, रथ, वाहन, छत्र, सिंहासनादि और कोई फलफूल आदि प्रस्तुत कर उन्हें ग्रहण करने को प्रार्थना करता, किन्तु विधि पूर्वक भिक्षा देने का किसी को नहीं आता। भगवान ऋषभदेव इन सारे उपहारों को अकल्पनीय मानकर बिना ग्रहण किये हो उल्टे पैरों खाली हाथ लौटे जाते।

भगवान का प्रथम पारणा

इस प्रकार भिक्षा के लिए विचरण करते हुए ऋषभदेव को लगभग एक वर्ष से अधिक समय हो गया. फिर भी उनके मन में कोई ग्लानि पैदा नहीं हुई। एक दिन भ्रमण करते हुए प्रभु कुरु जनपद में हस्तिनापुर पधारे। वहाँ बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस युवराज थे। उन्होंने रात्रि में स्वप्न देख "सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का (कान्तिहीन) हो गया है, उसको मैंने अमृत से सिंचित कर पुनः चमकाया है। दूसरी ओर सुबुद्धि त्रेष्ठि को स्वप्न आया कि सूर्य को हजार किरणें जो अपने स्थान से चलित हो रही थॉ, श्रेयांस ने उनको पुनः सूर्य में स्थापित कर दिया, इससे वह अधिक चमकने लगा महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि शत्रुओं से युद्ध करते हुए किसी बड़े सामन्त को श्रेयांस ने सहायता प्रदान को। और श्रेयांस की सहायता से उसने शत्रु-सैन्य को हटा दिया। प्रातः काल तीनों मिलकर अपने-अपने स्वप्न पर चिंतन करने लगे, और सब एक हो निष्कर्ष पर पहुँचे कि श्रेयांस कुमार को अवश्य ही कोई विशिष्ट लाभ प्राप्त होने वाला है।

उसी दिन पुण्योदय से भगवान ऋषभदेव विचरते हुए हस्तिनापुर पधारे। बहुत काल के पश्चात् भगवान के दर्शन पाकर नगरजन अत्यन्त प्रसन्न हुए। जब श्रेयांस कुमार ने राजमार्ग पर भ्रमण करते हुए भगवान ऋषभदेव को देखा तो उनके दर्शन करते ही श्रेयांस के मन में जिज्ञासा हुई और ऊहापोह करते हुए, चिन्तन करते हुए उन्हें ज्ञानावरण के क्षयोपशयम से जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पूर्वभव को स्मृति से उन्होंने जाना कि ये प्रथम तीर्थङ्कर हैं। आरम्भ परिग्रह के सम्पूर्ण त्यागी हैं। इन्हें निर्दोष आहार देना चाहिये। इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि भवन में सेवक पुरुषों द्वारा इक्षु रस के घड़े लाये गये। परम प्रसन्न होकर श्रेयांस कुमार सात-आठ कदम भगवान के सामने गये और प्रदक्षिणा पूर्वक भगवान को वन्दन कर स्वयं इक्षु-रस का घड़ा लेकर आये तथा त्रिकरण शुद्धि से प्रतिलाभ देने की भावना से भगवान के पास आये और बोले-"प्रभो! क्या खप है?" भगवान ने अञ्जलिपुट आगे बढ़ाया तो श्रेयस ने प्रभु को अंजलि में सारा रस उंडेल दिया। भगवान अद्रिपाणि थे, अतः रस की एक बूँद भी नीचे नहीं गिर पाई। भगवान ने वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्ष तप का पारणा किया। श्रेयाँस को बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय देवों ने पंच-दिव्य की वर्षा की और' अहो दानं, अहो दान' की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। श्रेयाँस ने प्रभु को वर्षों तप का पारणा करवा कर महान् पुण्य का संचय किया और अशुभ कर्मों की निर्जरा की। उस युग के वे प्रथम भिक्षा दाता हुए। आदिनाथ ने जगत् को सबसे पहले तप का पाठ पढ़ाया तो श्रेयाँसकुमार ने भिक्षा-दान की विधि से अनजान मानव-समाज को सर्वप्रथम भिक्षा-दान की विधि बतलाई। प्रभु के पारणे का वैशाख शुक्ला तृतीया का वह दिन अक्षय करणी के कारण लोक में आखातीज या अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो आज भी सर्वजन विश्रुत पर्व माना जाता है।

यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन षष्ठ भक्त अर्थात् बेले की तपस्या के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की और यदि दूसरे वर्ष की वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयाँस कुमार के यहाँ प्रथम पारणा किया तो यह उनकी पूरे एक वर्ष की ही तपस्या न होकर चैत्र कृष्णा अष्टमी से वैशाख शुक्ला तृतीया तक तेरह मास और दश दिन की तपस्या हो गई। ऐसी स्थिति में "संवच्छरेण भिक्खा लढा उसहेण लोगनाहेण" समवायसँग सूत्र के इस उल्लेख के अनुसार प्रभु आदिनाथ के प्रथम तप को संवत्सर तप कहा है, उनके साथ संगति किस प्रकार बैठती है ? क्योंकि अक्षय तृतीया के दिन प्रभु का प्रथम पारणक मानने की दशा में भगवान का प्रथम तप 13 मास और 10 दिन का हो जाता है और शास्त्र में प्रभु का प्रथम तप एक संवत्सर का तप माना गया है।

अक्षय तृतीया जो इस वर्ष 03 मई को है उसका महत्व क्यों है जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी


-🙏 आज ही के दिन माँ गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था ।

🙏-महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था ।

🙏-माँ अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था 

🙏-द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था ।

🙏- कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था ।

🙏- कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था ।

🙏-सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था ।

🙏-ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही के दिन हुआ था ।

🙏- प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही के दिन खोला जाता है ।

🙏- वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रह चरण के दर्शन होते है अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते है ।

🙏- इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था ।

🙏- अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता हैं।






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